जौ तुम सुनहुँ जसोदा गोरी।
नँद-नँदन मेरे मंदिर मैं आजु करन गए चोरी।
हौं भई जाइ अनाचक ठाढ़ो, कह्यौ भवन मैं को री।
रहे छपाइ, सकुचि रंचक ह्वै, भई सहज मति भोरी।
मोहि भयौ माखन पछितावौ, रीती देखि कमोरी।
जब गहि बाहँ कुलाहल कीनी, तब गहि चरन निहोरी।
लागे लैन नैन जल भरि-भरि, तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक-प्तलोरी।।286।।