जोग सँदेसौ ब्रज मैं लावत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग घनाश्री


 
जोग सँदेसौ ब्रज मैं लावत।
थाके चरन तुम्हारे ऊधौ, बार बार के धावत।।
सुनिहै कथा कौन निरगुन की, रचि पचि बात बनावत।
सगुर सुमेर प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत।।
हम जानतिं परपंच स्याम के, बातनि ही बौरावत।
देखी सुनी न अब लगि कबहूँ, जल मथि माखन आवत।
जोगी जोग अपार सिंधु मैं, ढूँढेंहू नहिं पावत।
ह्याँ हरि प्रगट प्रेम जसुमति कैं, ऊखल आपु बँधावत।
चुप करि रहौ ज्ञान ढकि राखौ, कत हौ बिरह बढ़ावत।
नंदकुमार कमलदल लोचन, कहि को जाहि न भावत।।
काहे कौ विपरीत बात कहि, सबके प्रान गवाँवत।
सोहत कित ‘सूरज’ अबलनि कौ, निगम नेति जिहि गावत।।3711।।

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