जानति हौ जिहि गुननि भरे हौ।
काहै दुराव करत मन मोहन, सोइ कहो तुम जाहिं ढरे हौ।।
निसि के जागे नैन अरुन दुति, अरु स्रम आलस अंग भरे हौ।
बंदन तिलक कपोलनि लाग्यौ काम केलि उर नख उघरे हौ।।
अब तुम कुटिल किसोर नंद सुत, कहौ कौन के चित्त हरे हौ।
एते पर ये समुझि 'सूर' प्रभु, सौह करन कौ होत खरे हौ।।2637।।