जब दधि-रिपु हरि हाथ लियौ।
खगपति-अरि डर असुरनि संका, बासर-पति आनंद कियौ।
बिदुखि सिंधु सकुचत, सिब सोचत, गरलादिक किमि जात पियौ।
अति अनुराग संग कमला-तन प्रफुलित अँग न समात हियौ।
एकनि दुख, एकनि सुख उपजत, ऐसौ कौन बिनोद कियौ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ।।143।।