जब तै बिछुरे कुंजबिहारी।
नीद न परै घटै नहिं रजनी, बिथा बिरह जुर भारी।।
सरद रैनि नलिनी दल सीतल, जगमग रही उजियारी।
रवि किरननि तै लागति ताती, इहि सीतल ससि जारी।।
स्रवननि सब्द सुहाइ ने सखि री, पिक चातकद्रुम डारी।
उर तै सखी दूरि करि हारहिं, कंकन धरहि उतारी।।
‘सूर’ स्याम बिनु दुख लागत है, कुसुमसेज करि न्यारी।
बिलखि बदन वृषभानुनंदिनी, करि बहु जतन जु हारी।। 3257।।