जबहिं बन मुरली स्रवन परी।
चक्रित भई गोपकन्या सब, काम धाम बिसरी।।
कुल मर्जादा वेद की आज्ञा, नैकुहूँ नहीं डरीं।।
स्याम-सिंधु, सरिता-ललना गन, जल की ढरनि ढरीं।।
अंग-मरदन करिबे कौं लागीं, उबटन तेल धरी।।
जो जिहिं भाँति चली सो तैसेहिं, निसि बन कौं जु खरी।।
सुत-पति-नेह, भवन-जन-संका, लज्जा नाहिं करी।।
सूरदास-प्रभु मन हरि लीन्हौ, नागर नवल हरी।।1000।।