जदुपति लख्यौ तिहि मुसुकात -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग रामकली


  
जदुपति लख्यौ तिहि मुसुकात।
कहत हम मन रही जोई, भई सोई बात।।
बचन परगट करन कारन, प्रेम कथा चलाइ।
सुनहु ऊधौ मोहि ब्रज को, सुधि नही बिसराइ।।
रैनि सोवत, दिवस जागत, नाहिंनै मन आन।
नंद जसुमति नारि-नर-ब्रज तहाँ मेरौ प्रान।।
कहत हरि सुनि उपँगसुत यह, कहत हौ रस रीति।
‘सूर’ चित तै टरति नाही, राधिका की प्रीति।। 3423।।

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