चलन कौ कहियत है हरि आज।
अबही सखी देखि आई है, करता गवन की साज।।
कोउ इक कंस कपट करि पठयौ, कछु सँदेस दै हाथ।
सुतौ हमारौ लिये जात है, सरबस अपनै साथ।।
सो यह सूल नाहिं सुनि सजनी! सहियै धरि जिय लाज।
धीरज जात, चलौ अबही मिलि, दूरि गऐ कह काज।।
छाँड़ौ जग जीवन की आसा, अरु गुरुजन की कानि।
बिनती कमलनयन सौ करियै, 'सूर' समै पहिचानि।।2983।।