बहुरि नृप जज्ञ निन्यानबे करि,सतम जज्ञ कौं जबहिं आरंभ कीन्हौ।
इंद्र भय मानि, हय-गहन सुत सौं कह्यौ, सो न लै सक्यौ, तब आप लीन्हौ।
नृपति सुत सौं कह्यौ,जाइ हय ल्याइ अब ,इंद्र तिहिं देखि हय छाँड़ि दीन्हौ।
नृप कह्यौ सुरनि के हतु मैं जज्ञ कियौ, इंद्र मम अस्व किहिं काज लीन्हौ?
रिषिन कह्यौ, तुब सतम जज्ञ आरंभ लखि, इंद्र कौ राज-हित कँप्यौ, हीयौ।
नृप कह्यौ, इंद्रपुर की न इच्छा हमैं, रिषिनि तब पूरनाहुती दीयौ।
पुरुष कह्यौ,कुंड तैं निकसि पूरन भयौ, इंद्र जिमि वर कछू माँगि लीजै।
पृथु कहौ, नाथ, मेरैं न कछु शत्रुता, अरु न कछु कामना, भक्ति दीजै।
जग-पुरुष गए बैकुंठ धामहिं जवै, न्यौति नृप प्रजा कौं तब हँकारौ।
तिन्हैं संतोषि कह्यौ, देहु माँगै हमैं, बिष्नु की भक्ति सब चित धारौ।
सुनत यह बात सनकादि आए तहाँ, मान दै कह्यौ, मौहिं ज्ञान दीजै।
कह्यौ, यह ज्ञान, यह ध्यान सुमिरन यहै , निरखि हरि रूप मुख नाम लीजै।
पुनि कह्यौ, देहु आसीस मम प्रजा कौं, सबै हरि-भक्ति निज चित धारै।
कृपा तुम करी, मैं भेंट कौं मन धरी , नहीं कछु वस्तु ऐसी हमारैं।
बहुरि सनकादि गए आपुने धाम कौं नृपति, सब लोग, हरि-भक्ति लाए।
सूर प्रभुचरित अगनित,न गनि जाहिं, कछु जथामति आपनी कहि सुनाए।। 11।।