ग्वाल मंडली में बैठे मोहन बट की छाँह, दुपहर बेरिया सखानि संग लीने।
एक दूध, फल, एक झगरि चबेना लेत, निज निज कामरी के आसननि कीने।
जेंवतऽरु गावत हैं सारँग की तान कान्ह, सखनि के मध्य छाक लेत कर छीने।
सूरदास प्रभु कों निरखि, सुख रीझि-रिझि, सुर सुमननि बरषत रस भीने।।467।।