ग्वालिन हरि की बात सुनाई। यह सुनि कंस गयौ मुरझाई।
तब मनहीं मन करत बिचार। यह कोउ भलौ नहीं अवतार।
यासौं मेरौ नहीं उबार। मोहिं मारि, मारै परिबार।
दैत्य गए ते बहुरि न आए। काली तैं ये क्यौं बचि पाए।
ताही पर धरि कमल लदाए। सहस सकट भरि ब्याल पठाए।
एक ब्याल मैं उनहिं बताए। कोटि ब्याल मम सदन चलाए।
ग्वालनि देखि मनहि रिस काँपै। पुनि मन मैं भय-अंकुर थापै।
आपुहिं आप नृपति थल त्याग्यौ। सूर देखि कमलनि उठि भाग्यौ।।585।।