गोविन्द तेरौ सरूप निगम नेति गावैं।
भक्ति के बस स्याम सुंदर, देह धरे आवै।
जोगी जन ध्यान धरैं, सपनेहुँ नहिं पावैं।
नंद-धरनि बाँधि-बाँधि, कपी ज्यौं नचावैं।
गोपी जन प्रेमातुर, तिनकौं सुख दीन्हौं।
अपनैं-अपनैं रस बिलास, काहू नहिं चीन्हौं।
स्रुती, सुमृति, सब पुरान, कहत मुनि बिचारी।
सूरदास प्रेम कथा, सबही तैं न्यारी।।394।।