गोपी पद रज महिमा 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


मांगौ बर मन भावते, पुरवौ सो तुम आस।।
स्रुतिनि कह्यौ कर जोरि, सच्चिदानंद देव तुम।
जो नारायन आदि रूप तुम्हरे सो लखे हम।।
त्रिगुन रहित निज रूप जो, लख्यौद न ताकौ भेव।
मन बानी तैं अगम जो, दिखरावहु सो देव।।
बृंदाबन निज धाम, कृपा करि तहौ दिखायौ।
सब दिन जहाँ बसंत, कल्प-बृच्छनि सो छायौ।।
कुंज अतिहिं रमनीक तहँ, बेलि सुभग रहीं छाइ।
गिरि गोबर्धन घातुमय, झ्ररना झरत सुभाइ।।
कालिंदि जल अमृत, प्रफुल्लित कमल सुहाए।
नगनि जटित दोउ कूल, हंस सारस तहँ छाए।।
क्रीड़त स्याम किसोर तहँ, लिए गोपिका साथ।
निरखि सुछबि स्रुति थकित भईं, तब बोले जदुनाथ।।
जो मन इच्छा होइ, कहौ सौ मोहिं प्रगट कर ।
पूरन करौं सु काम, देउँ तुमकौं मैं यह बर।।
स्रुतिनि कह्यौ ह्वैं गोपिका, केलि करैं तुम संग।
एवमस्तु निज मुख कह्यौ, पूरन परमानंद।।
कल्पसार सत ब्रह्मा, जब सब सृष्टि उपावै।
अरु तिहुं लोकनि बरन-आसरम धरम चलावै।।
बहुरि अधर्मी होहिं नृप, जग अधर्म बढ़ि जाइ।
तब बिधि, पृथ्वी, सुर सकल, बिनय करैं मोहिं आइ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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