क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर।
माखन माँगत, बात न मानत, झँखत जसोदा-जननी-तीर।
जननी मधि, सनमुख संकर्षन खैंचत कान्ह खस्यौ सिर-चीर।
मनहुँ सरस्वति संग उभय दुज, कल मराल अरु नील कँठीर।
सुंदर स्याम गही कवरी कर, मुक्ता माल गही बलबीर।
सूरज भष लैबे अब अपनौ, मानहुँ लेत निबेरे सीर।।161।।