कान्हहिं पठै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सुघरई


कान्हहिं पठै, महरि कौं कहति है पाइनि परि।
आजु कहूँ कारैं उहिं, खाई है काम-कुँवरि।।
सब दिन आवै सुजाइ, जहाँ-तहाँ फेरि फिरि।
अबहीं खरिक गई आइ रही है जिय बिसरि।।
निसि के उनींदे नैन, तेसे रहे ढरि ढरि।
कीधौं कहुँ प्यारी कौं, लागी टटकी नजरि।।
तेरौ सुत गारुड़ी, सुन्यौ, है बात री महरि।
सूरदास देखैं प्रभु, जैहै री गरद झरि।।752।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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