कान्हर बलि आरि न कीजै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



कान्हर बलि आरि न कीजै। जोइ-जाइ भावै सोइ लीजै।
यह कहति जसोदा रानी। को खिझवै सारंगपानी।
जो मेरैं लाल खिझावै। सो अपनौ कीनौ पावै।
तिहिं दैहौं देस-निकारौ। ताकौ ब्रज नाहिंन गारौ।
अति रिसही तैं तनु छीजै। सुठि कोमल अंग पसीजै।
बरजत-बरजत बिरुझाने। करि क्रोध मनहिं अकुलाने।
कर धरत धरनि पर लोटै। माता को चीर निखोटै।
अंग-आभूषन सब तोरै। लवनी-‍दधि-भाजन फोरै।
देखत सुतप्त जल तरसै। जसुदा के पाइनि परसै।
तब महरि बाहं गहि आनै। लै तेल उबटनौ सानै।
तब गिरत-परत उठि भागै। कहुं नैंकु निकट नहिं लागै।
तब नंद-घरनि चुचकारै। आवहु बलि जाउं तुम्हारै।
नहिं आवहु तौ भलैं लाला। समुझौगे मदन गोपाला।
तुम मेरी रिस नहिं जानौ। मोकौ नहिं तुम पहिचानौ।
मैं आजु तुम्हैं गहि बांधौ। हा-हा करि-करि अनुराधौं।
बाबा नंद उत तैं आए। कौनैं हरि अतिहिं खिझाए।
मुख चूमि हरषि लै आए। लै जसुमति पै पहुँचाए।
मोहन कत खिझत अयानी। लिए लाइ हिऐं नंदरानी।
क्यौं कहूँ जतन करि पाए। तन उबटन तेल लगाए।
तातौ जल आनि समोयौ। अन्हवाइ दियौ, मुख धोयौ।
अति सरस बसन तन पोंछे। लै कर मुख-कमल अँगोंछे।
अंजन दोउ दृग भरि दीन्हौ। भ्रुव चारू चखौड़ा कीन्हौ।
आभूषन अँग जे बनाए। लालहिं क्रम-क्रम पहिराए।
ऐसी रिस करौ न कान्हा। अब खाहु कुँवर कछु नान्हा।
तुतरात कह्यौ का है री। जो मोहिं भावै सो दै री।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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