कह लौ राखिय मन बिरमाई।
इक टक सिव घर नैन न लागत, स्याम-सुता-सुत धनि चलि आई।।
हरिबाहन दिवबास सहोदर, तिहिं मति उदित मुरछि महि जाई।
गिरिजा-पति-रिपु नख सिख व्यापत, बसत सुधा प्रिय कथा सुनाई।।
बिरहिनि बिरह आपु बस कीन्हौ, लेहु कमल जिनि पाइँ छुवाई।
बेगिहिं मिलौ ‘सूर’ के स्वामी, उदधि-सुता-पति मिलिहै आई।। 3282।।