कही हरि ऊधौ सौ ब्रज प्रीति।
वै लै चले जोग गोपिनि कौ, तहाँ करन विपरीति।।
तुरत अक भरि रथहिं चढ़ायौ, बिन कह्यौ करि ताहि।
विरह जँजाल मेटि गोपिनि कौ, आवहु काज निबाहि।।
लै रज चरन सीस बदन करि, ब्रज रैहौ दिन द्वैकु।
‘सूरज’ प्रभु श्री मुख कहि पठवत, तुम बिनु रहौ न नैकु।।3450।।