कहियौ कपि, रघुनाथ राज सौं सादर यह इक विनती मेरी।
नाहिं सही परति मोपै अब, दारुन त्रास निसाचर केरी।
यह तौ अंध बीसहूँ लोचन, छल-बल करत आनि मुख हेरी।
आइ सृगाल सिंह बलि चाहत, यह मरजाद जाति प्रभु तेरी।
जिहिं भुज परसुराम बल करष्यौ, ते भुज क्यौं न सँभारत फेरी।
सूर सनेह जानि करुनामय लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी॥93॥