कहा करौ नीके करि हरि कौ, रूप रेख नहि पावति।
संगहि संग फिरति निसि बासर, नैन निमेष न लावति।।
बँधी दृष्टि ज्यौ गुडी डोर बस, पाछै लागी धावति।
निकट भएँ मेरीषे छाया, मोकौ दुख उपजावनि।।
नख सिख निरखि निंहारयौ चाहति, मन मूरति अति भावति।
जानति नही कहाँ तै निज छबि, अंग अंग मैं आवति।।
अपनी देह आपु कौ बैरिनि, दुरति न दुरी दुरावति।
‘सूर’ स्याम सौ प्रीति निरंतर, अंतर मोहिं करावति।।1853।।