कल बल कै हरि आरि परे।
नव रंग बिमल नवीन जलधि पर, मानहु द्वै ससि आनि अरे।
जे गिरि कमठ सुरासुर सर्पहि धरत न मन मैं नैंकु डरे।
ते भुज-भूषन-भार परत कर गोपिनि के आधार धरे।
सूर स्याम दधि-भाजन-भीतर निरखत मुख मुख तैं न टरे।
बिबि चंद्रमा मनौ मथि काढे़, बिहँसनि मनहुँ प्रकास करे।।141।।