ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाही।
हससुता की सुदर कगरी, अरु कुजनि की छाँहीं।।
वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाही।
ग्वालबाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाही।।
यह मथुरा कचन की नगरी, मनिमुक्ताहल जाही।
जबहिं सुरति आवति वा सुख को, जिय उमगत तन नाही।।
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नद निबाही।
'सूरदास' प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि कहि पछिताही।।4157।।