इहिं विधि बन बसे रघुराइ।
डासि कै तृन भूमि सोवत, द्रुमनि के फल खाइ।
जगत-जननी करी बारी, मृगा चरि चरि जाइ।
कोपि कै प्रभु बान लीन्हौं, तबहिं धनुष चढ़ाइ।
जनक-तनया धरी अगिनि मैं, छाया-रूप बनाइ।
यह न कोऊ भेद जानै, बिना श्री रघुराइ।
कह्यौ अनुज सौं, रह्यौ ह्याँ तुम छाँडि़ जनि कहुँ जाइ।
कनक-मृग मारीच मारयौ, गिरयौ लपन सुनाइ।
गयौ सो दै रेख, सीता कह्यौ सो कहि नहिं जाइ।
तबहिं निसिचर गयौ छल करि, लई सीय चुराइ।
गीघ ताकौं देखि धायौ, लरयौ सूर बनाइ।
पंख काटैं गिरयौ, असुर तब गयौ लंका जाइ॥60॥