इक दिन हरि हलघर-सँग ग्वारन 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
यज्ञ-पत्नी-लीला



तिन तौ कह्यौ न कीन्हौ कानी। तन तजि चली बिरह अकुलानी।।
धन्य-धन्य वै परम सभागी। मिलीं जाइ सबहिनि तै आगी।।
तब हरि तिनसौं कहि समुझाई। सुनौ तिया तुम काहैं आई।।
नारि पतिब्रत मानै जोई। चारि पदारथ पावै सोई।।
तियनि कह्यौ जग झूठ सगाई। हम तौ हैं तुम्हरी सरनाई।।
प्रभु कह्यौ पतिब्रत करौ सदाई। तुमकौं यहै धर्म सुखदाई।।
प्रभु-आज्ञा तै घर कौं आईं। पुरुष करत तिनि की बड़ियाई।।
धनि-धनि तुम हरि-दरसन पायौ। हम पढ़ि-गुनि कै सब बिसरायौ।।
ब्रह्मादिक खोजत नित जिनकौं। साच्छात देख्यौ तुम तिनकौं।।
वे हैं सकल जगत के स्वामी। और सबनि के अंतरजामी।।
अब हम चरन सरन हैं आए। तब हरि उनके दोष छमाए।।
ग्वालिनि मिलि हरि भोजन कीन्हौ। भाव तियनि कौ मन धरि लीन्हौ।।
भक्ति भाव सौं जो हरि ध्यावै। सो नर नारि अभय-पद पावै।।
यह लीला सुनि गावै जोई। हरि की भक्ति सूर तिहिं होई।।800।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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