आजु तोहिं काहै आनँद थोर।
यह विपरीत सखी तोहि महियाँ, इंदु कज इक ठौर।।
हरद्रावन संतत अधिकारी, ज्यौं बिधि चंद चकोर।
दधिगृह जुगल बनावति क्यों नहिं बिगसित अंबुज भोर।।
कंपित स्वास त्रास अति मोकति ज्यौ मृग केहरिकौर।
'सूरदास' स्वामी रति नागर तौ न हरयौ मन मोर।। 94 ।।