आजु और छबि नंदकिसोर।
मिलि रसरुचि लोचन भए रोचन, चितवत चित्त पराई ओर।।
सोभित पीठि प्रगट कर कंकन, सोभित हार हियै बिनु डोर।
सोभित पीत बसन दोउ राते, अधरनि अंजन नैन तमोर।।
नख सिख लौ सिंगार अटपटे, पाए मनहुँ पराए चोर।
फूले फिरत दिखावत औरनि, निडर भए दै हँसनि अँकोर।।
देखत बनै कहत नहिं आवै, बैसंधि बरनत कबिनि कठोर।
अचरज क्यौं न होत इनि बातनि 'सूर' ग्रहन देखै बिनु भोर।।2681।।