आँगन खेलै नंद के नंदा -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



आँगन खेलै नंद के नंदा। जदुकुल-कुमुद-सुखद-चारू-चंदा।
संग-संग बल-मोहन सोहैं। सिसु-भुषन भुव कौ मन मोहैं।
तन-दुति मोर-चंद जिमि झलकै। उमँगि-उमँगि अंग-अंग छबि झलकै।
कटि किंकिनि, पग पैंजनि बाजै। पंकज पानि पहुँचिया राजै।
कठुला कंठ बधनहां नोके। नैन-सरोज मैन-सरसी के।
लटकतिं ललति ललाट लटूरी। दमकतिं दूध दतुरियाँ रू‍री।
मुनि-मन हरत मंजु मसि-बिंदा। ललित बदन बल-बालगुविंदा।
कुलही चित्र-विचित्र झँगू‍ली। निरखि जसोदा-रोहिनि फूली।
गहि मनि-खंभ डिंभ डग डोलैं। कल-बल बचन तोतरे बोलैं।
निरखत झुकि, झांकत प्रतिबिंबहिं। देत परम सुख पितु अरु अंबहिं।
ब्रज-जन निरखत हिय हुलसाने। सूर स्याम-महिमा को जाने।।117।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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