असुर-पति अतिहीं गर्ब धरयौ 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू
केशी-वध


अति गर्वित ह्वै कह्यौ असुर भट, कितिक बात यह आहि।
कै मारौं, जीवत धरि ल्‍यावौं, एक पलक मैं ताहि।।
आज्ञा पाइ असुर तब धायौ, मन मैं यह अवगाहि।
देखौं जाइ कौन यह ऐसौ, कंस डरत है जाहि।।
यह कहि कै आयौ ब्रज भीतर, करत बडौ उतपात।
नर-नारी सब देखत डरपे, भयौ बडौ संताप।।
हरि ताकौ दै सैन बुलायौ, मो पै काहे न आवत।
तब वह दोउ हाथ उठाऐं, आयौ हरि दिसि धावत।।
हरि दोउ हाथ पकरि कै ताकौं दियौ दूरि फटकारि।
गिरयौ धरनि पर अति बिह्वल ह्वै, रही न देह सँभारि।।
बहुरौ उठ्यौ सँभारि असुर वह, धायौ निज मुख बाइ।
देखि भयानक रूप असुर कौ, सुर नर गए डराइ।।
दाउँ-घात सब भाँति करत है, तब हरि बुद्धि उपाइ।
एक हाथ मुख-भीतर नायौ, पकरि केस घिसियाइ।।
चहुँधा फेरि, असुर गहि पटक्यौ, सब्द उठ्यौ आघात।
चौंकि परयौ कंसासुर सुनिकै, भीतर चल्यौ परात।।
यह काउ भलौ नहीं ब्रज जनम्यौ, यातैं बहुत डरात।
जान्यौ कंस असुर गहि पटक्यौ, नंद महर कैं तात।।
पुहुप बृष्टि देवनि मिलि कीन्ही, आनंद मोद बढ़ाए।
ब्रज-जन, नंद-जसोदा हरषे, सूर सुमंगल गाए।।1396।।

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