अविगत-गति कछु समुझि न परै2 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग भैरो
कच-देवयानी-कथा


 
सुरगुरु सुत कौं देखि लुभाई। दैखै ताहि पुरुष की नाई।
काल बितीत कितिक जब भयौ। गाइ चरावन कौं सो गयौ।
असुरन मिलि यह कियौ बिचार। सुरगुरु-सुत कौं डारैं मार।
जौ यह संजीवनि पढ़ि जाइ। तौ हम सत्रुनि लेइ जिवाइ।
यह बिचार करि कच कौं मारयौ। सुक्र सुता दिन पंय निहारयौ।
साँझ भऐ हूँ जब नहिं आयौ। सुक्र पास तिनि जाइ सुनायौ।
सुक्र हृदय मैं कियौ बिचार। कह्यौ असुरनि उहिं डायौ मार।
सुता कह्यौ तिहि फेरि जिवावो। मेरे जिय कौ सोच मिटावौ।
सुक्र ताहि पढ़ि मंत्र जिवावौ। भया तासु तनया कौ भायौ।
पुनि हति मदिरा माहिं मिलाइ। दियौ दानवनि रिषिहिं पियाइ।
तब तैं हत्या मद कौं लागी। यहै जानि सब सुर-मुनि त्यागी।
साप दियौ ताकौं इहिं भाइ। जो तोहिं पियै सो नरकहिं जाइ।
कच बिनु सुक्र-सुता दुख पायौ। तब रिषि तासौं कहि समुझायौ।
मारयौ कच कौं असुरनि धाइ। मदिरा मैं मोहिं दियौ पियाइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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