अब हरि क्यौ बसै, गोकुल गवई।
बसत नगर नागर लोगनि मैं, नइ पहिचानि भई।।
इक हरि चतुर हुते पहिलै ही, अब उन गुरु सिखई।
हम सब गर्व गँवारि जानि जड़, अधपर छाँड़ि दई।।
ऊधौ मुख जोवत कुबिजा कौ, हम सब बिसरि गई।
याहि तै चतुर सुजान ‘सूर’ प्रभु, ग्वाली सँग न लई।।3915।।