अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ।
सब्दहि सब्द भयौ उजिवारौं, सतगुरु भेद बतायौ।
ज्यौं कुरंग-नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायौ।
फिरि चितयौ जब चेतन ह्वै करि अपने ही तन छायौ।
राजकुमारि कंठ-मनि-भूषन भ्रम भयो कहूँ गँवायौ।
दियौ बताइ और सखियनि तब, तनु कौ ताप नसायौ।
सपने माहिं नारि कौं भ्रम भयौ, बालक कहूँ हिरायौ।
जागि लख्यौ, ज्यौं को त्यौ ही है, ना कछु गयौ न आयौ।
सूरदास सकुझे की यह गति, मनहीं मन मुसुकायौ।
कहि न जाइ या सुख की महिमा, ज्यौं गूँगै गुर खायौ।। 13।।
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