अपनैं अपनैं टोल कहत ब्रजवासियां -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गौरी


अपनैं अपनैं टोल कहत ब्रजवासियाँ।
भोग भुगति लै चलौ, इंद्र के आँसियाँ ।।ध्रुव।।
सरद-कुहू-निसि जानि, दीपमालिका बनाई।
गोपनि कैं आनंद, फिरत उनमद अधिकाई।।
घर-घर थापैं दीजियै, घर-घर मंगलचार।
सात बरस कौं साँवरौ, खेलत नंद-दुवार।।
बैठि नंद उपनंद, बोलि वृषभानु पठाए।
सुरपति-पूजा देत, जानि तहँ गोबिंद आए।।
बार-बार हा-हा करहिं, कहि बाबा यह बात।
घर-घर नेवज होत है, कौन देव की जात।।
कान्ह तुम्हारी कुसल, लागि इक मंत्र उपैहौं।
षटरस भोजन साजि, भोग सुरपति कौं दैहौं।।
नंद कह्यौ चुचकारि कै, जाइ दमोदर सोइ।
बरस दिवस कौ दिवस है, महा महोत्सव होइ।।
तब हरि मंत्र विचार, तुरत गोपनि सौं कीन्हौ।
एक पुरुष मोहिं आइ, आजु सुपनौ निसि दीन्हौं।
सब दे‍वनि कौ देवता, गिरि गोवर्धनराज।
ताहि भोग किन दीजियै, सुरपति कौ यह काज।
बाढ़ै गोसुत-गाइ दूध-दधि कौ कह लेखौ।
यह परचौ बिदिमान; नैन अपनै किन देखौ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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