मुरली कौ मन हरि सौं मान्यौ।
हरि कौ मन मुरली सौं मिलि गयौ, जैसैं पय अरु पान्यौ।।
जैसैं चोर चोर सौं रातैं, ठठा ठठा एकै जानि।
कुटिल कुटिल मिलि चलैं एक ह्वै, दुहुनि बनी पहिचानि।।
वे बन बन नित धेनु चरावत, वह बनही की आहि।
सूर गढ़ी जोरी बिधना की, जैसी तैसी ताहि।।1279।।