बोलि लियौ बलरामहिं जसुमति।
लाल सुनौ हरि के गुन, काल्हिहिं तैं लँगरई करत अति।
स्यामहिं जान देहि मेरैं सँग, तू काहैं डर मानति।
मैं अपने ढिग तें नहिं टारौं जियहिं प्रतीति न आनति।
हँसी महरि बल की बतियाँ सुनि, बलिहारी या मुख की।
जाहु लिवाइ सूर के प्रभु कौं, कहति बीर के रुख की।।425।।