प्रथम ब्याह बिधि होइ रह्यौ हो -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


प्रथम ब्याह बिधि होइ रह्यौ हो कंकन-चार बिचारि।
रचि रचि पचि पचि गूँथि बनायौ नवल निपुन ब्रजनारि।।
बड़े होहु तौ छोरि लेहु जौ, सकल घोष के राइ।
कै कर जोरि करौ बिनती, कै छुवौ राधिका-पाइ।।
यह न होइ गिरि कौ धरिबौ हो, सुनहु कुँवर-ब्रजनाथ।
आपुन कौं तुम बड़े कहावत, काँपन लागे हाथ।।
बहुरि सिमिटि ब्रज-सुंदरि सब मिलि दीन्होे गाँठि घुराइ।
छोरहु बेगि कि आनहु अपनी, जसुमति माइ बुलाइ।।
सहज सिथिल पल्लव तैं हरि जू, लीन्हौ छोरि सँवारि।
किलकि उठीं तब सखी स्याम की, तुम छोरौ सुकुमारि।।
पचिहारी कैसेंहु नहिं छूटत, बँधी प्रेम कौ डोरि।
देखि सखी यह रीति दुहुनि की, मुदित हँसीं मुख मोरि।।
अब जिनि करहु सहाइ सखी री, छाँड़हु सकल सयान।
दुलहिनि छोरि दुलह कौ कंकन, बोलि बबा वृषभान।।
कमल कमल करि बरनत हैं हो, पानि प्रिया के लाल।
अब कबि कुल साँचे से लागत, रोम कंटीले नाल।।
लीला-रहस गुपाल लाल की, जो रस रसिक बखान।
सदा रहै यह अबिचल जोरी, बलि बलि सूर सुजान।।1073।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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