इक मन अरू ज्ञानेंद्री पाँच। नर कौं सदा नचावैं नाच।
ज्यौं मग चलत चौर धन हरैं। त्यौं ये सुकृत-धनहिं परिहरै।
तस्कर ज्यौं सुक्रित-धन लेहिं। अरु हरि-भजन करन नहिं देहिं।
ज्ञानी इनकौ संग न करै। तस्कर जानि दूरि परिहरै।
नर सरीर सुर ऊपर आहि। लहै ज्ञान कहियै कहा ताहि।
तातैं तुमकौं करत दँडौत। अरू सब नरहूँ कौ परिनौत।
सुक कह्यौ सुनि यह नृपति सुजान। लह्यौ ज्ञान तजि देहऽभिमान।
जो यह लीला सुनै सुनावै। सोऊ ज्ञान भक्ति कौं पावै।
सुकदेव ज्यौं दियौ नृपहिं सुनाइ। सूरदास कह्यै ताहि भाइ।। 4 ।।