दाहिनै देखियत मृगमाल।
मानौ इहिं सकुन अबहिं इहि बन आजु, इनहिं भुजनि भरि भेटौ गो गोपाल।।
निरखि तनु त्रिभंग, पुलक सकल अंग अंकुर धरनि जिमि पावसहिं काल।
परिहौं पाइनि जाइ, भेटिहै अंकम लाइ, मूल तै जमी ज्यौ बेलि चढ़ति तमाल।।
परसि परमानंद, सीचिं कै कामना कंद, करिहैं प्रगट प्रीति प्रेम के प्रवाल।
बचन रचन हास, सुमन सुख निवास, करहिं फलिहै फल अभय रसाल।।
स्फुरत सुभ सुबाहु लोचन मन उछाहु, फुलि कै सुकृत फल फलै तिहिं काल।
निगम कहत नेति सिव न सकत चेति, हृदय लगाइ 'सूर' लैहौ ता दयाल।।2946।।