झूलहिं तहाँ ब्रजसुंदरी रति रूप सम बहुरंग।
परम मंगल गीत हरिगुन गावही सब संग।।
तहँ रास हास बिलास क्रीडत हरषि सिद्धि कलोल।
मचकहिं परस्पर कृष्न सनमुख अलक लोल कपोल।।
अलक लोल कपोल कुंडल ललित फरहरे चीर।
राजत विचित्र सुहावने जनु धुजा मन्मथ कीर।।
बलय कंकन रसन मुकुलित सकल भूषन अंग।
झूलहिं तहाँ ब्रज सुंदरी रति-रूप-सम बहु रंग।। 3 ।।