जौ पै कान्ह और गति जानी।
तौ कत सुनै बात अलि तेरी, हिऐ नही ठहरानी।।
सुरति होत मोहन मूरति की, हुते घोप इक चंद।
अब कुबिजा बदरी तर काँपै, मिति न बिरह नँदनंद।।
बिनु दरसन कुमुदिनि बिरहिनि अब क्यौ जीहै रस रीति।
काहू जुग नहिं सुनी उभय मन, एक ‘सूर’ रस रीति।। 194 ।।