जो पै यहै प्रेम की बात।
तौ ऊधौ तुम निकट रहत कत, निरखि साँवरौ गात।।
बात कहत भरि लेत नैन जल, सुरति करत अकुलात।
जौ घट घट हरि रहत निरंतर, कतहिं मधुपुरी जात।।
सगुन प्रीति ऐसी प्रतिपालत, दुखित होत अति गात।
तुम निरगुन सौ प्रीति करत नित, ‘सूर’ समुझि पछितात।।3906।।