अहो तुम आनि मिलौ नंदलाल।
दुर्बल, मलिन फिरतिं हम बन-बन तुम बिनु मदनगोपाल।।
द्रुम-बेली पूछतिं सब उझकतिं, देखतिं, ताल-तमाल।
खेलत रास-रंग भरि छांड़ीं लै जु गए इक बाल।।
सूरदास सब गोपी पछिली क्रीड़ा करतिं रसाल।
गोपी वृंद मध्य जग जीवन प्रगट भए तिहिं काल।।1124।।