हरि अनुराग भरी व्रजनारी। लोक सकुच कुलकानि बिसारी।।
सासु ननद हारी दै गारी। सुनति नहीं कोउ कहति कहा री।।
सुत-पति-नेह जगत यह जोरयौ। ब्रज तरुनिनि तिनुक सौं तोरयौ।।
काँचौ सूत तोरि सो डारयौ। उरग केचुरी फिरि न निहारयौ।।
ज्यौ जलधार फिरै तृन नाही। जैसै नदी समुद्र समाही।।
जैसै सुभट खेत चढ़ि धावै। जैसैं सती बहुर नहिं आवै।।
ऐसै भजी नंदनंदन कौ। सकुची नहिं त्यागत गृहजन कौ।।
'सूरज' प्रभु बस घोषकुमारी। ज्यौ गज पंक न सकै निवारी।।2216।।