निगम सार देखौ गोकुल हरि।
जाकौ दूरि दरस देवनि कौं, सो बांध्यौ जसुमति ऊखल धरि।
चुटकी दै-दै ग्वालि नचावति, नाचत कान्ह बाल-लीला करि।
जिहिं डर भ्रमत पवन, रवि-ससि, जल, सो करै टहल लकुटिया सौं डरि।
छीरसमुद्र सयन संतत जिहिं, मांगत दूध पतौषी दै भरि।
सूरदास गुन के गाहक हरि, रसना गाइ अनेक गए तरि।।392।।