देखौ कपिराज, भरत वै आए।
मम पाँवरी सीस पर जाके, कर-अँगुरी रघुनाथ बताए।
छीन सरीर बीर के बिछुरै, राज-भोग चित तै विसराए।
तप अरु लघु-दीरधता, सेवा स्वामी-धर्म सब जगहि सिखाए।
पुहुप विमान दूरिहीं छाँडे, चपल चरन आवत प्रभु धाए।
आनंद-मगन पगनि केकइ-सुत कनक दंड ज्यौं गिरत उठाए।
भेंटत आँसू परे पीठि पर, बिरह-अगिनि मनु जरत बुझाए।
ऐसेहि मिले सुमित्रा-सुत कौं, गदगद गिरा नैन जल छाए।
जथाजोग भेंटे पुरबासी, गए सूल, सुख-सिंधु नहाए।
सिया-राम-लछिमन मुख निरखत, सूरदास के नैन सिराए॥168॥