हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 86 श्लोक 24-46

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद

देवताओं के लिये कण्‍टक रूप वह दुष्‍टात्‍मा दैत्‍य जो लोग यज्ञ और तपस्‍या द्वारा देवताओं को पुष्‍ट करते थे, उनके उस अनुष्‍ठान में विघ्न डाल देता थे। राजन! तीनों वर्णों के लोग यज्ञों में विघ्न डालने वाले अन्धकासुर के भय से न तो यज्ञ कर पाते थे और न तपस्‍या ही। वायु उसकी इच्‍छा के अनुसार चलती थी। सूर्य भी उसकी रुचि के अनुसार ही तपते थे तथा नक्षत्रों सहित चन्‍द्रमा भी उसकी इच्‍छा से ही दीखते अथवा नहीं दीखते थे। प्रभो! बल के घमंड में भरे हुए खोटी बुद्धि वाले अत्‍यन्‍त घोर अन्‍धकासुर के भय से आकाश में विमान नहीं चलने पाते थे। कुरुकुल-धुरन्‍धर वीर! अत्‍यन्‍त भयानक अन्‍धकासुर के भय से सारा जगत् ॐकार और वषट्कार की ध्‍वनि से शून्‍य हो गया। भारत! वह पापी उत्तरकुरु, भद्राश्‍व, केतुमाल तथा जम्‍बूद्वीप के अन्‍य प्रदेशों पर भी धावा बोला करता था। दुर्जय देवता और दानव भी उसका सम्‍मान करते थे तथा अन्‍यान्‍य भूत सर्वथा समर्थ होने पर भी उसका आदर करते थे। धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ नरेश! उसके द्वारा मारे और सताये जाने वाले ब्रह्मवादी ऋषि एकत्र हो अन्‍धकासुर के वध का उपाय सोचने लगे। उन ऋषियों में बुद्धिमान बृहस्‍पति भी थे।

उन्‍होंने इस प्रकार कहा- ‘इस असुर की मृत्‍यु रुद्रदेव के सिवा दूसरे के हाथ से किसी तरह नहीं हो सकती। दिति को वर देते समय महर्षि कश्‍यप ने भी यह बात कह दी थी। मैं भगवान् रुद्र से इसकी रक्षा नहीं कर सकता। यही बुद्धिमान् कश्‍यप जी का वचन है। अत: हम लोग उस उपाय पर विचार करें, जिससे दुष्‍टों का संहार करने वाले सनातन देव भगवान शंकर को यह पता लग जाय कि अन्‍धकासुर के अत्‍याचार से समस्‍त प्राणी पीड़ित हो रहे हैं। भगवान रुद्रदेव इस जगत के स्‍वामी और सत्‍पुरुषों के आश्रय हैं। जब उन्‍हें इस बात का पता चल जायगा, तब वे अवश्‍य सबके आंसू पोंछेंगे (अन्‍धकासुर को मारकर जगत का दु:ख दूर कर देंगे)। उन देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान शिव का यह व्रत है कि दुष्‍टों से साधु पुरुषों की, विशेषत: ब्राह्मणों की अवश्‍य रक्षा करनी चाहिये। अत: हम सब लोग नारद बाबा की शरण में चलें। वे ही इसका उपाय जानते होंगे; क्‍योंकि वे भगवान शंकर के मित्र हैं’। बृहस्‍पति की बात सुनकर उन सभी तपोधनों ने जब आकाश में दृष्टि डाली तो देखा देवर्षि-शिरोमणि नारद स्‍वयं आ पहुँचे।

उन्‍होंने नारद मुनि का यथोचित रीति से पूजन और विधिवत् सत्‍कार करके कहा- ‘देवर्षे! भगवन्! साधो! आप शीघ्र कैलाश पर्वत को चले जाइये और अन्‍धकासुर का वध करने के लिये भगवान शंकर को आवश्‍यक सूचना दीजिये। आप ही इस कार्य के योग्‍य है।’ उन ऋषियों ने नारद जी से कहा- 'आप जगत की रक्षा के लिये प्रयत्‍नशील हों।' तब नारद मुनि ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर उनका अनुरोध स्‍वीकार कर लिया। ऋषियों के चले जाने पर उन विद्वान मुनि ने कार्य के विषय में मन-ही-मन विचार करके यह देख और समझ लिया कि इस विषय में अपने को क्‍या करना है? तत्‍पश्‍चात भगवान नारद मुनि देवाधिदेव महादेवजी का दर्शन करने के लिये उस स्‍थान पर आये, जहाँ नित्‍य भगवान वृषध्‍वज मन्‍दार वन में विराजमान होते हैं। भगवान् शूलपाणि के प्रिय सखा मुनिश्रेष्‍ठ नारद वहाँ मन्‍दारों के उस रमणीय वन में एक रात रहकर भगवान शिव से आज्ञा ले पुन: स्‍वर्गलोक को लौट आये। भरतनन्‍दन! उन्‍होंने अपने गले में मन्‍दार-पुष्‍पों द्वारा अच्‍छी तरह बनायी गयी और विशेष कला के साथ गूँथी गयी माला धारण कर रखी थी, जिसकी सुगन्‍ध सभी श्रेष्‍ठ सुगन्‍धों में परम उत्‍तम थी। नरेश्‍वर! उन्‍होंने संतान-माला की लड़ियां भी गले में डाल रखी थीं, जो उन्‍हीं संतान-कुसुमों से बनी हुई थी। उससे भी बड़ी सुगन्‍ध फैल रही थी। उन मालाओं को धारण करके वे उस स्‍थान पर आये, जहाँ बल के घमंड में भरा हुआ दुरात्‍मा अन्‍धकासुर रहता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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