हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 47 श्लोक 25-34

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 25-34 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से चल दिये और सूर्य का रंग लाल होते राजा भीष्मक के घर पर जा पहुँचे। राजाओं का समाज आ चुका था। उनके शिविरों से कुण्डिनपुर के आस-पास का भूभाग आच्छादित हो गया था। स्वयंवर का रंगस्थल भी बहुत विस्तृत था। उसे देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने राजस प्रकृति का आश्रय लिया। उन्होंने राजाओं को डराने और अपने प्रभाव को प्रकाशित करने के लिये पुरातन वाहन महाबली विनतानन्दन गरुड़ का मन-ही-मन चिन्तन किया।

उनके चिन्तन करने मात्र से ही उनके मनोभाव को जानकर विनताकुमार गरुड़ सुखपूर्वक देखने योग्य सौम्य शरीर धारण करके श्रीकृष्ण के पास छिपे हुए आये। उनका पंख संचालन वायु को भी उद्भ्रान्त कर देने वाला था। इसकी हवा लगने से वहाँ के सारे मनुष्य काँप उठे और औंधे होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। गरुड़ के वेग से आहत होकर पृथ्वी पर गिरे हुए वे सारे मनुष्य सर्पों के समान छटपटाने लगे। उन सबको गिरा हुआ देख पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हुए श्रीकृष्ण ने उस समय पंख की हवा से ही यह अनुमान कर लिया कि पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ आ गये। (फिर उन्होंने मन-ही-मन उनका आदर किया)। थोड़ी देर में ही उन्होंने देखा, गरुड़ आ पहुँचे। वे दिव्य पुष्पों के हार और दिव्य चन्दन से अलंकृत थे। वे अपने पंखों के संचालन से उठी हुई वायु के द्वारा पृथ्वी को भी बारंबार हिला देते थे।

उनके पृष्ठ भाग में कुछ दिव्य आयुध सटे हुए थे, जिनसे ऐसा जान पड़ता था कि कुछ सर्प उन्हें चाट रहे हैं। वे मुँह नीचे किये मन-ही-मन अनुभव कर रहे थे कि मुझे भगवान विष्णु के वरद हस्त का स्पर्श प्राप्त हो रहा है। गरुड़ अपने दोनों पंजों से एक विशाल सर्प को खींचे चले आ रहे थे, जिसका रंग श्वेत था। वे सुवर्णमय पंखों से सम्पन्न होने के कारण विविध धातुओं से युक्त पर्वत के समान प्रतीत होते थे। ये वे ही गरुड़ थे, जिन्होंने एक बार अमृत का उपहरण कर लिया था। वे बड़े-बड़े सर्पराजों का विनाश करने में समर्थ, दैत्य समूहों को भयभीत करने वाले तथा भगवान विष्णु के ध्वज चिह्न एवं वाहन थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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