हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 47 श्लोक 12-24

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद

यह समाचार सुनकर श्रीकृष्ण को ऐसा लगा, जैसे उनके हृदय में किसी ने काँटा-सा चुभो दिया हो। वे यदुश्रेष्ठ गोविन्द यदुवंशियों की सेना के साथ नगर से बाहर निकले। वे समस्त यादव, जो बल में बढ़े-चढ़े थे और संग्राम की लालसा रखते थे, श्रेष्ठ रथों द्वारा यात्रा के लिये निकले। उस समय वे गर्वीले देवताओं के समान जान पड़ते थे। अपनी आशा के अनुसार चलने वाली श्रेष्ठ सेना के साथ यात्रा के लिये उद्यत हुए भगवान श्रीकृष्ण, जो शिव जी के परमप्रिय हैं, एक हाथ में चक्र और दूसरे में गदा लिये बड़ी शोभा पा रहे थे।

दूसरे यादव भी सूर्य के समान तेजस्वी तथा छोटी-छोटी घण्टियों के नाद से निनादित रथों द्वारा भगवान वासुदेव के पीछे-पीछे वहाँ जाने को उद्यत हुए। उस समय निश्चित दृष्टि रखने वाले भगवान गोविन्द ने राजा उग्रसेन से कहा - ‘अनघ! नृपश्रेष्ठ! आप मेरे बड़े भाई बलराम जी के साथ यहीं रहिये। वीर! प्रायः क्षत्रिय छल-कपट में चतुर होते हैं, उनकी दृष्टि राजनीति तक ही सीमित रहती है। कहीं ऐसा न हो कि वे मेरे जाने के पश्चात इस पुरी को सूनी समझकर इस पर आक्रमण कर दें। हमसे शंकित हो वे सब-के-सब जरासंध के वशवर्ती हो गये हैं और देवलोक में निवास करने वाले देवताओं की भाँति वे जरासंध के यहाँ बड़े सुख और आनन्द से रहते हैं’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण की वह बात सुनकर महायशस्वी भोजराज उग्रसेन उनके स्नेह से गद्गद हुई अमृतमयी वाणी में बोले- ‘कृष्ण! कृष्ण!! महाबाहो!!! तुम यादवों का आनन्द बढ़ाने वाले हो। शत्रुसूदन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसको सुनो। तुम्हारे बिना हम सब लोग इस नगर या राज्य में सुख से नहीं रह सकते, ठीक उसी तरह जैसे पतिहीन स्त्रियाँ कहीं भी सुख से नहीं रह पाती हैं। दूसरों को मान देने वाले तात! तुमसे ही हम लोग सनाथ है। तुम्हारे बाहुबल का आश्रय लेकर हम नरेन्द्रों की तो बात ही क्या है? देवेन्द्र सहित देवताओं से भी नहीं डरते हैं। यदुश्रेष्ठ! यादवप्रवर! तुम विजय के लिये जहाँ-जहाँ भी जाओ, वहाँ हम लोगों के साथ ही चलो’। राजा उग्रसेन का यह वचन सुनकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए बोले, ‘महाराज! आप लोगों की जैसी इच्छा होगी, वैसा ही मैं करूँगा, इसमें संशय नहीं है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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