हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 39 श्लोक 27-41

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनचत्वा्रिंश अध्याय: श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद वक्ताओं में श्रेष्ठ एवं लोक वृत्तान्त के ज्ञान में कुशल श्रीकृष्ण ने मुनिश्रेष्ठ परशुराम जी से स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा- 'भगवन! मैं समझता हूँ ‍कि आप भृगकुलभूषण क्षत्रियकुल विनाशक मुनिश्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुराम जी हैं। भृगुनन्दन! आपने अपने बाण के वेग से समुद्र को पीछे ढकेल दिया और जितनी दूरी में बाण गिरा समुद्र से उतनी ही भूमि लेकर वहाँ शूर्पारक नगर का निर्माण किया। उस नगर की लम्बाई पांच सौ धनुष और चौड़ाई पांच सौ बाण है।

सह्यपर्वत के निकुञ्जों में वह समृद्धिशाली महान जनपद बसा हुआ है। आपने समुद्र वेला का उल्लंघन करके अपरान्त देश में (जो पश्चिम समुद्र के तट पर है) उस महान जनपद को बसाया है। आपने ही अपने पिता की मृत्यु को याद करके एक ही फरसे से कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं का वह जंगल काट डाला था। आपके द्वारा मारे गये जो शत्रुभूत क्षत्रिय थे, आपके फरसे से प्रवाहित हुए। उनके स्निग्ध रुधिर से आज भी यह वसुन्धरा भीगकर रक्त की कीच से युक्त दिखायी देती है। मैं जानता हूँ कि आप भूमण्डल के क्षत्रियों पर रोष प्रकट करने वाले रेणुकानन्दन परशुराम हैं। क्योंकि आप रणभूमि की भाँति यहाँ भी फरसा लिये हुए हैं, अत: विप्रवर! हम दोनों आपसे एक बात पूछना चाहते हैं तथा आप हमारी बात सुनकर निर्भीक हो हमें जो उत्तर देंगे, उसे सुनने की भी हमारी इच्छा है।

मुनिश्रेष्ठ परशुराम! हमारी निवासभूमि मथुरापुरी है, जो यमुना तट पर शोभा पाती है। हम दोनों यादव हैं। यदि हमारे नाम भी कभी आपके कानों में पड़े हों तो आप हमें जानते भी होंगे। यदुकुल के श्रेष्ठ पुरुष तथा उत्तम व्रत धारण करने वाले वसुदेव जी हम दोनों के पिता हैं। हम दोनों भाई जन्म से ही कंस के भय से व्रज में ही रखे गये और वहीं उससे शंकित रहकर बड़े हुए हैं। प्रथम किशोरावस्था को प्राप्त होने पर हम दोनों भाइयों का मथुरा में प्रवेश हुआ। वहाँ हमने धर्म-मर्यादा से विचलित हुए कंस को रंगशाला में बलपूर्वक मार डाला और उसके राज्य पर उसी के पिता को राजा बनाकर बिठा दिया। तत्पश्चात सदा से गोपालन-सम्बन्धी कार्य करने वाले हम दोनों भाइयों ने फि‍र वही अपना काम-धंधा आरम्भ कर दिया।

तदनन्तर राजा जरासंध ने हम दोनों के नगर पर घेरा डालने के लिये निश्चित विचार कर लिया। यद्यपि हम दोनों उसके साथ बहुत युद्ध कर चुके हैं तथापि अपने नगर और प्रजाजनों की रक्षा के लिये हमने जरासंध से लड़ने के लिये कोई उद्योग नहीं किया। व्रतधारी मुने! अभी हम लोगों को शक्ति और साधन का संचय करना है, अत: अकृतार्थ होकर ही हम लोग वहाँ से चल पड़े।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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