हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 35 श्लोक 59-74

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 59-91 का हिन्दी अनुवाद

उन्‍होंने दिव्य फूलों के हार धारण किये थे। अपनी प्रभा से प्रकाशित हो आकाश से गिरते हुए वे दिव्‍यास्त्र आकाशचारी प्राणियों के मन में भय उत्‍पन्न करते थे। संवर्तक नामक हल, सौनन्‍द नामक मूसल, धनुषों में श्रेष्ठ शार्गं तथा कौमोद की गदा- भगवान विष्‍णु के ये चार तेजस्‍वी आयुध उन दोनों भाइयों के लिये यादवों के उस महासमर में उतर आये। बलराम जी ने उस युद्धस्‍थल में पहले सर्पराज के समान सर्पणशील (गतिमान) तथा दिव्‍य मालाओं से अलंकृत सुन्‍दर आकृति वाले हल को (दाहिने हाथ में) ग्रहण किया। तदनन्‍तर यादवों में श्रेष्ठ श्रीमान संकर्षण ने शत्रुओं के आनन्‍द को हर लेने वाले सौनन्‍द नामक श्रेष्ठ मूसल को बायें हाथ से ग्रहण किया। इसके बाद पराक्रमी श्रीकृष्‍ण ने मघों के समान गम्‍भीर घोष करने वाले शार्गं नामक धनुष को ग्रहण किया, जो समस्‍त लोकों में दर्शनीय है। देवताओं ने जिन्‍हें अपना प्रयोजन बताया था और जिनके नेत्र खिले हुए कुमुद के समान शोभा पाते हैं, उन भगवान श्रीकृष्‍ण के दूसरे हाथ में वह सुप्रसिद्ध कौमोद की गदा स्‍वत: आ गयी। उन आयुधों से युक्त हो साक्षात विष्‍णु-विग्रह के समान शरीर वाले दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्‍ण समरांगण में उन शत्रुओं के साथ युद्ध करने लगे।

उन दिव्‍य आयुधों को ग्रहण करके एक-दूसरे को सहारा देने वाले वे अग्रज और अनुज रूप दोनों वीर बन्‍धु श्रीबलराम और श्रीकृष्‍ण शत्रुओं का सामना करते हुए ईश्वर कोटि के महापुरुषों के समान पराक्रम दिखाने लगे। वसुदेव के वे दोनों पुत्र रणभूमि में देवताओं के समान विचरते थे। वीर बलराम क्रोध में भरकर सर्पराज के समान हल उठाये शत्रुओं के लिये कालरूप होकर समरभूमि में विचर रहे थे। वे महामनस्‍वी क्षत्रियों के रथ समूहों को पीछे ढकेलते हुए हाथियों और घोड़ों पर अपना रोष सफल करने लगे। बलराम जी गजराजों को हल से खींचकर उन्‍हें मूसल की मार से घायल करते हुए समरांगण में अद्भुत शोभा पा रहे थे। उन्‍होंने पर्वतों के समान हाथियों को मथ डाला। रणभूमि में बलराम जी के द्वारा मारे जाते हुए वे क्षत्रिय शिरोमणि भयभीत हो समर से पीछे हटकर जरासंध के पास भाग गये। उस समय क्षत्रिय धर्म में स्थिर रहने वाले जरासंध ने उन क्षत्रियों से कहा- ‘अरे समरांगण में कातर हृदय होकर पीछे भागने वाले तुम सब लोगों की इस क्षत्रिय-वृत्ति को धिक्कार है! जो संग्रामभूमि में रथहीन होने पर पीठ दिखाकर भागने लगता है, उसकी इस भीरुता को मनीषी पुरुष भ्रूणहत्‍या के समान असह्य बताते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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