हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 35 श्लोक 44-58

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 44-58 का हिन्दी अनुवाद


शकुनीपुत्र उलूक, अंशुमान के पुत्र एकलव्य, बृहत्क्षत्र, क्षत्रधर्मा, जयद्रथ, उत्तमौजा, शल्य, कुरुवंशी, केकय राजकुमार, विदिशा के राजा वामदेव तथा सिनीपति सांकृति- इन सबके अधीन मथुरापुरी का पूर्वद्वार कर दिया जाय। ये लोग जैसे वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार शत्रुओं को विदीर्ण करने के लिये उन पर धावा बोल दें। मैं, दरद तथा पराक्रमी चेदिराज कवच धारण करके नगर के दक्षिण द्वार का मोरचा संभालेंगे। इस प्रकार हमारी सेनाओं द्वारा चारों ओर से घिरी हुई यह नगरी मानो इस पर वज्रपात हो गया हो इस प्रकार विषम एवं घोर भय प्राप्त करे।

गदाधारी वीर गदाओं से, परिघ चलाने वाले परिघों से तथा अन्य वीर नाना प्रकार के दूसरे शस्त्रों से इस पुरी को विदीर्ण कर डालें। आज ही आप सब भूपाल मिलकर ऊंचे-नीचे महलों के समूहों से भरी हुई इस सारी नगरी को गर्द में मिलाकर समतल भूमि के समान कर दें।' इस प्रकार आदेश दे चतुरिंगणी सेनाओं का व्यूह बनाकर जरासंध युद्ध के लिये डट गया और क्रोध में भरे हुए समस्त नरेशों के साथ यादवों पर चढ़ आया। उस समय अपनी सेना का व्यूह बनाकर प्रहार कुशल यादवों ने जरासंध का सामना किया। उनका वह युद्ध देवासुर संग्राम के समान भयंकर प्रतीत होता था। यह थोड़े से योद्धाओं का बहुसंख्यसक शत्रुओं के साथ युद्ध हुआ, जिसमें उभय पक्ष के रथ और हाथी एक-दूसरे से सटकर जूझ रहे थे।

इसी समय वासुदेव के दोनों पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम नगर से बाहर निकले। उन्हें देखते ही उन श्रेष्ठ राजाओं की विशालवाहिनी क्षुब्ध हो उठी। उसके वाहन भयभीत और मोहाच्छन्न-से हो गये कवच धारण करके रथ पर बैठे हुए वे दोनों यादव वीर वहाँ विचरने लगे, मानो क्रोध में भरे हुए दो मगर समुद्र में हलचल मचा रहे हों। उस संग्राम में जुझते हए उन दोनों महात्मा वीरों के मन में यह संकल्प उठा, यदि हमारे पुरातन अस्त्र आ जाते तो हम उन्हें ही लेकर युद्ध करते। उनके इतना सोचते ही उस युद्ध में आकाश से वे दिव्य आयुध नीचे आने लगे। वे सब-के सब सुदृढ़, महान और दैदीप्यमान थे तथा शत्रुओं को चाट जाने के लिये उद्यत दिखाई देते थे। उनके पीछे मांस भक्षी भूत-प्रेत आदि भी आ रहे थे। वे दिव्य अस्त्र मूर्तिमान एवं विशाल थे तथा युद्ध में आये हुए राजाओं के रक्त-मांस का उपभोग करने के लिये मानो अत्यन्त‍ भूखे-प्यासे थे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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